कभी एक निर्णय सिक्का उछालकर लेते हो
दुविधा का बोझ नसीबो पे ढकेलते हो
जानते हो मगर पहचानते नहीं हो
अनजान बनकर झूट जताते हो
दुनिया क्या कहेगी
इस बात से घबराते हो
पता है शायद
क्या चाइये ?
क्यों चाहिए ?
किसलिए चैहिये ?
देर बस लकीर को लांघने की है तेरी
चित हो या पट
देर उस क्षण को पहचानने की है तेरी
जब समय थम जाये
तब
पोहोचने दे उस आवाज को कानो तक
अपने आप ही
भींतर अपने ही झाँक के देख
धुंधला ही क्यों न हो
नज़र आएगी मंज़िल तेरी
सिक्का गिर जाये तो देखना मत
चित है या पट
समेटकर कर अपने आप को
यात्रा की शुरुवात कर
अब तू जनता है
तुझे
क्या चाइये !
क्यों चाहिए !
किसलिए चैहिये !